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दर-ख़ूर-ए-क़हर-ओ-ग़ज़ब जब कोई हम सा न हुआ - ग़ालिब कविता - Darsaal

दर-ख़ूर-ए-क़हर-ओ-ग़ज़ब जब कोई हम सा न हुआ

दर-ख़ूर-ए-क़हर-ओ-ग़ज़ब जब कोई हम सा न हुआ

फिर ग़लत क्या है कि हम सा कोई पैदा न हुआ

बंदगी में भी वो आज़ादा ओ ख़ुद-बीं हैं कि हम

उल्टे फिर आए दर-ए-काबा अगर वा न हुआ

सब को मक़्बूल है दावा तिरी यकताई का

रू-ब-रू कोई बुत-ए-आइना-सीमा न हुआ

कम नहीं नाज़िश-ए-हमनामी-ए-चश्म-ए-ख़ूबाँ

तेरा बीमार बुरा क्या है गर अच्छा न हुआ

सीने का दाग़ है वो नाला कि लब तक न गया

ख़ाक का रिज़्क़ है वो क़तरा कि दरिया न हुआ

नाम का मेरे है जो दुख कि किसी को न मिला

काम में मेरे है जो फ़ित्ना कि बरपा न हुआ

हर-बुन-ए-मू से दम-ए-ज़िक्र न टपके ख़ूँ नाब

हमज़ा का क़िस्सा हुआ इश्क़ का चर्चा न हुआ

क़तरा में दजला दिखाई न दे और जुज़्व में कुल

खेल लड़कों का हुआ दीदा-ए-बीना न हुआ

थी ख़बर गर्म कि 'ग़ालिब' के उड़ेंगे पुर्ज़े

देखने हम भी गए थे प तमाशा न हुआ

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