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दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ - ग़ालिब कविता - Darsaal

दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ

दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ

मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ

जम्अ करते हो क्यूँ रक़ीबों को

इक तमाशा हुआ गिला न हुआ

हम कहाँ क़िस्मत आज़माने जाएँ

तू ही जब ख़ंजर-आज़मा न हुआ

कितने शीरीं हैं तेरे लब कि रक़ीब

गालियाँ खा के बे-मज़ा न हुआ

है ख़बर गर्म उन के आने की

आज ही घर में बोरिया न हुआ

क्या वो नमरूद की ख़ुदाई थी

बंदगी में मिरा भला न हुआ

जान दी दी हुई उसी की थी

हक़ तो यूँ है कि हक़ अदा न हुआ

ज़ख़्म गर दब गया लहू न थमा

काम गर रुक गया रवा न हुआ

रहज़नी है कि दिल-सितानी है

ले के दिल दिल-सिताँ रवाना हुआ

कुछ तो पढ़िए कि लोग कहते हैं

आज 'ग़ालिब' ग़ज़ल-सरा न हुआ

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