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दाइम पड़ा हुआ तिरे दर पर नहीं हूँ मैं - ग़ालिब कविता - Darsaal

दाइम पड़ा हुआ तिरे दर पर नहीं हूँ मैं

दाइम पड़ा हुआ तिरे दर पर नहीं हूँ मैं

ख़ाक ऐसी ज़िंदगी पे कि पत्थर नहीं हूँ मैं

क्यूँ गर्दिश-ए-मुदाम से घबरा न जाए दिल

इंसान हूँ पियाला ओ साग़र नहीं हूँ मैं

या-रब ज़माना मुझ को मिटाता है किस लिए

लौह-ए-जहाँ पे हर्फ़-ए-मुकर्रर नहीं हूँ मैं

हद चाहिए सज़ा में उक़ूबत के वास्ते

आख़िर गुनाहगार हूँ काफ़र नहीं हूँ मैं

किस वास्ते अज़ीज़ नहीं जानते मुझे

लअ'ल ओ ज़मुर्रद ओ ज़र ओ गौहर नहीं हूँ मैं

रखते हो तुम क़दम मिरी आँखों से क्यूँ दरेग़

रुत्बे में महर-ओ-माह से कम-तर नहीं हूँ मैं

करते हो मुझ को मनअ-ए-क़दम-बोस किस लिए

क्या आसमान के भी बराबर नहीं हूँ मैं

'ग़ालिब' वज़ीफ़ा-ख़्वार हो दो शाह को दुआ

वो दिन गए कि कहते थे नौकर नहीं हूँ मैं

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