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दहर में नक़्श-ए-वफ़ा वजह-ए-तसल्ली न हुआ - ग़ालिब कविता - Darsaal

दहर में नक़्श-ए-वफ़ा वजह-ए-तसल्ली न हुआ

दहर में नक़्श-ए-वफ़ा वजह-ए-तसल्ली न हुआ

है ये वो लफ़्ज़ कि शर्मिंदा-ए-मअ'नी न हुआ

सब्ज़ा-ए-ख़त से तिरा काकुल-ए-सरकश न दबा

ये ज़मुर्रद भी हरीफ़-ए-दम-ए-अफ़ई न हुआ

मैं ने चाहा था कि अंदोह-ए-वफ़ा से छूटूँ

वो सितमगर मिरे मरने पे भी राज़ी न हुआ

दिल गुज़रगाह-ए-ख़याल-ए-मय-ओ-साग़र ही सही

गर नफ़स जादा-ए-सर-मंज़िल-ए-तक़्वी न हुआ

हूँ तिरे वादा न करने में भी राज़ी कि कभी

गोश मिन्नत-कश-ए-गुलबाँग-ए-तसल्ली न हुआ

किस से महरूमी-ए-क़िस्मत की शिकायत कीजे

हम ने चाहा था कि मर जाएँ सो वो भी न हुआ

मर गया सदमा-ए-यक-जुम्बिश-ए-लब से 'ग़ालिब'

ना-तवानी से हरीफ़-ए-दम-ए-ईसी न हुआ

न हुई हम से रक़म हैरत-ए-ख़त्त-ए-रुख़-ए-यार

सफ़्हा-ए-आइना जौलाँ-गह-ए-तूती न हुआ

वुसअत-ए-रहमत-ए-हक़ देख कि बख़्शा जावे

मुझ सा काफ़िर कि जो ममनून-ए-मआसी न हुआ

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