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बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना - ग़ालिब कविता - Darsaal

बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना

बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना

आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना

गिर्या चाहे है ख़राबी मिरे काशाने की

दर ओ दीवार से टपके है बयाबाँ होना

वा-ए-दीवानगी-ए-शौक़ कि हर दम मुझ को

आप जाना उधर और आप ही हैराँ होना

जल्वा अज़-बस-कि तक़ाज़ा-ए-निगह करता है

जौहर-ए-आइना भी चाहे है मिज़्गाँ होना

इशरत-ए-क़त्ल-गह-ए-अहल-ए-तमन्ना मत पूछ

ईद-ए-नज़्ज़ारा है शमशीर का उर्यां होना

ले गए ख़ाक में हम दाग़-ए-तमन्ना-ए-नशात

तू हो और आप ब-सद-रंग-ए-गुलिस्ताँ होना

इशरत-ए-पारा-ए-दिल ज़ख़्म-ए-तमन्ना खाना

लज़्ज़त-ए-रीश-ए-जिगर ग़र्क़-ए-नमक-दाँ होना

की मिरे क़त्ल के बा'द उस ने जफ़ा से तौबा

हाए उस ज़ूद-पशीमाँ का पशेमाँ होना

हैफ़ उस चार गिरह कपड़े की क़िस्मत 'ग़ालिब'

जिस की क़िस्मत में हो आशिक़ का गरेबाँ होना

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