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बला से हैं जो ये पेश-ए-नज़र दर-ओ-दीवार - ग़ालिब कविता - Darsaal

बला से हैं जो ये पेश-ए-नज़र दर-ओ-दीवार

बला से हैं जो ये पेश-ए-नज़र दर-ओ-दीवार

निगाह-ए-शौक़ को हैं बाल-ओ-पर दर-ओ-दीवार

वुफ़ूर-ए-अश्क ने काशाने का किया ये रंग

कि हो गए मिरे दीवार-ओ-दर दर-ओ-दीवार

नहीं है साया कि सुन कर नवेद-ए-मक़दम-ए-यार

गए हैं चंद क़दम पेश-तर दर-ओ-दीवार

हुई है किस क़दर अर्ज़ानी-ए-मै-ए-जल्वा

कि मस्त है तिरे कूचे में हर दर-ओ-दीवार

जो है तुझे सर-ए-सौदा-ए-इन्तिज़ार तो आ

कि हैं दुकान-ए-मता-ए-नज़र दर-ओ-दीवार

हुजूम-ए-गिर्या का सामान कब किया मैं ने

कि गिर पड़े न मिरे पाँव पर दर-ओ-दीवार

वो आ रहा मिरे हम-साए में तो साए से

हुए फ़िदा दर-ओ-दीवार पर दर-ओ-दीवार

नज़र में खटके है बिन तेरे घर की आबादी

हमेशा रोते हैं हम देख कर दर-ओ-दीवार

न पूछ बे-ख़ुदी-ए-ऐश-ए-मक़दम-ए-सैलाब

कि नाचते हैं पड़े सर-ब-सर दर-ओ-दीवार

न कह किसी से कि 'ग़ालिब' नहीं ज़माने में

हरीफ़-ए-राज़-ए-मोहब्बत मगर दर-ओ-दीवार

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