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बाग़ पा कर ख़फ़क़ानी ये डराता है मुझे - ग़ालिब कविता - Darsaal

बाग़ पा कर ख़फ़क़ानी ये डराता है मुझे

बाग़ पा कर ख़फ़क़ानी ये डराता है मुझे

साया-ए-शाख़-ए-गुल अफ़ई नज़र आता है मुझे

जौहर-ए-तेग़ ब-सर-चश्म-ए-दीगर मालूम

हूँ मैं वो सब्ज़ा कि ज़हराब उगाता है मुझे

मुद्दआ महव-ए-तमाशा-ए-शिकस्त-ए-दिल है

आइना-ख़ाना में कोई लिए जाता है मुझे

नाला सरमाया-ए-यक-आलम ओ आलम कफ़-ए-ख़ाक

आसमाँ बैज़ा-ए-क़ुमरी नज़र आता है मुझे

ज़िंदगी में तो वो महफ़िल से उठा देते थे

देखूँ अब मर गए पर कौन उठाता है मुझे

बाग़ तुझ बिन गुल-ए-नर्गिस से डराता है मुझे

चाहूँ गर सैर-ए-चमन आँख दिखाता है मुझे

शोर-ए-तिम्साल है किस रश्क-ए-चमन का या रब

आइना बैज़ा-ए-बुलबुल नज़र आता है मुझे

हैरत-ए-आइना अंजाम-ए-जुनूँ हूँ ज्यूँ शम्अ

किस क़दर दाग़-ए-जिगर शोला उठाता है मुझे

मैं हूँ और हैरत-ए-जावेद मगर ज़ौक़-ए-ख़याल

ब-फ़ुसून-ए-निगह-ए-नाज़ सताता है मुझे

हैरत-ए-फ़िक्र-ए-सुख़न साज़-ए-सलामत है 'असद'

दिल पस-ए-ज़ानू-ए-आईना बिठाता है मुझे

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