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अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा - ग़ालिब कविता - Darsaal

अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा

अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा

जिस दिल पे नाज़ था मुझे वो दिल नहीं रहा

जाता हूँ दाग़-ए-हसरत-ए-हस्ती लिए हुए

हूँ शम-ए-कुश्ता दर-ख़ुर-ए-महफ़िल नहीं रहा

मरने की ऐ दिल और ही तदबीर कर कि मैं

शायान-ए-दस्त-ओ-बाज़ु-ए-क़ातिल नहीं रहा

बर-रू-ए-शश-जहत दर-ए-आईना बाज़ है

याँ इम्तियाज़-ए-नाक़िस-ओ-कामिल नहीं रहा

वा कर दिए हैं शौक़ ने बंद-ए-नक़ाब-ए-हुस्न

ग़ैर-अज़-निगाह अब कोई हाइल नहीं रहा

गो मैं रहा रहीन-ए-सितम-हा-ए-रोज़गार

लेकिन तिरे ख़याल से ग़ाफ़िल नहीं रहा

दिल से हवा-ए-किश्त-ए-वफ़ा मिट गई कि वाँ

हासिल सिवाए हसरत-ए-हासिल नहीं रहा

बेदाद-ए-इश्क़ से नहीं डरता मगर 'असद'

जिस दिल पे नाज़ था मुझे वो दिल नहीं रहा

हर-चंद मैं हूँ तूती-ए-शीरीं-सुख़न वले

आईना आह मेरे मुक़ाबिल नहीं रहा

जाँ-दाद-गाँ का हौसला फ़ुर्सत-गुदाज़ है

याँ अर्सा-ए-तपीदन-ए-बिस्मिल नहीं रहा

हूँ क़तरा-ज़न ब-वादी-ए-हसरत शबाना रोज़

जुज़ तार-ए-अश्क जादा-ए-मंज़िल नहीं रहा

ऐ आह मेरी ख़ातिर-ए-वाबस्ता के सिवा

दुनिया में कोई उक़्दा-ए-मुश्किल नहीं रहा

अंदाज़-ए-नाला याद हैं सब मुझ को पर 'असद'

जिस दिल पे नाज़ था मुझे वह दिल नहीं रहा

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