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आ कि मिरी जान को क़रार नहीं है - ग़ालिब कविता - Darsaal

आ कि मिरी जान को क़रार नहीं है

आ कि मिरी जान को क़रार नहीं है

ताक़त-ए-बेदाद-ए-इंतिज़ार नहीं है

देते हैं जन्नत हयात-ए-दहर के बदले

नश्शा ब-अंदाज़ा-ए-ख़ुमार नहीं है

गिर्या निकाले है तेरी बज़्म से मुझ को

हाए कि रोने पे इख़्तियार नहीं है

हम से अबस है गुमान-ए-रंजिश-ए-ख़ातिर

ख़ाक में उश्शाक़ की ग़ुबार नहीं है

दिल से उठा लुत्फ़-ए-जल्वा-हा-ए-मआनी

ग़ैर-ए-गुल आईना-ए-बहार नहीं है

क़त्ल का मेरे किया है अहद तो बारे

वाए अगर अहद उस्तुवार नहीं है

तू ने क़सम मय-कशी की खाई है 'ग़ालिब'

तेरी क़सम का कुछ ए'तिबार नहीं है

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