ज़िंदगी चुभ रही है काँटा सी
गर ये निकले तो सब ख़लल जावे
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जब कि ज़ुल्फ़ उस की गले खा बल पड़ी
धानी जूड़े पे तिरे साँवले मैं मरता हूँ
एक बर्छी से मार जाते हो
ऐ मुसव्विर शिताब हो कि अभी
आते आते तर्फ़ मेरे मुड़ के फिर कीधर चले
ओसों गई है प्यास कहीं दीदा-ए-नमीं
दिल लिया ताब-ओ-तवाँ ले चुका जाँ भी ले ले
क़सम मय की मुझ बिन है मेरे लहू की
हम इश्क़ तेरे हाथ से क्या क्या न देखीं हालतें
जी में क्या क्या मिरी उमाहा था
मह-रू न हो और चाँदनी वो रात है किस काम की
तुझ बिन और हम को सूझता ही नहीं