तुझ बिन और हम को सूझता ही नहीं
और तू हम को बूझता ही नहीं
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ऐ मुसव्विर शिताब हो कि अभी
जान आ बर में कि फिर कुछ ग़म-ओ-वसवास नहीं
किया है तू ने तो जान-ए-जहाँ जहाँ तस्ख़ीर
मह-रू न हो और चाँदनी वो रात है किस काम की
है जानी तुझ में सब ख़ूबी प जाँ सा
ओ अतारिद ज़ुहल-ए-नहिस से टुक माँग मिदाद
'अज़फ़री' ग़ुंचा-ए-दिल बंद और आई है बहार
ये दीवाने हैं महव-ए-दीद दिलबर
बे-ग़मी तर्क-ए-आलाइक़ है सदा 'अज़फ़रिया'
ताक लागी तिरी दुख़्तर से हमारी ऐ ताक
शिताबी अपने दीवाने को कर बंद