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शिताबी अपने दीवाने को कर बंद - मिर्ज़ा अज़फ़री कविता - Darsaal

शिताबी अपने दीवाने को कर बंद

शिताबी अपने दीवाने को कर बंद

मुसलसल ज़ुल्फ़ से कर या नज़र-बंद

तिरा शैदा न ठहरा जाँ सा इक दम

गया ले कोट में लोहे के कर बंद

जो तुझ पर और को तरजीह दे देख

बस उस अंधे की आँखें हैं मगर बंद

तड़पता बे-क़रारी आह-ओ-ज़ारी

हुईं ये हालतें क्यूँकर सतर-बंद

है शोला आग का हर आह के साथ

ये दिल है या है सीने में शरर बंद

पियारे डर ख़ुदा से अपनी आँखें

हमारी तर्फ़ से इतनी न कर बंद

तुझे ख़ुर्शीद-रू, जी भर के देखूँ

हुई जाती है मेरी आँख पर बंद

अज़ीज़ो मिस्र-ए-दिल की राह है दूर

रह-ए-ज़ुल्मात में हैगा ये दर बंद

जो चाहे दो जहाँ का काम लेगा

है बाँधा जिस ने हिम्मत का क़मर-बंद

रहो टुक 'अज़फ़री' अब चश्म खोले

रहेंगी आँख फिर शाम-ओ-सहर बंद

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