किया है तू ने तो जान-ए-जहाँ जहाँ तस्ख़ीर
किया है तू ने तो जान-ए-जहाँ जहाँ तस्ख़ीर
हुआ है हुस्न का शोहरा तिरा तो आलम-गीर
नहा के बाल जो सरकाए गोरे चेहरे से
तो जैसे चाँद निकल आया काली बदरी चीर
न ख़ूब-रू तुझे कह सकते हैं न महर न माह
अजब गढ़ी यद-ए-क़ुदरत ने कुछ तिरी तस्वीर
जहाँ पड़ा तिरा साया उगा वहाँ गुलज़ार
क़दम धरा है तू जिस जा बना है मुश्क-ओ-अबीर
शिकार कर लिया सारा जहाँ शिकार-अंदाज़
हुआ है पार निगह से तिरी निगाह का तीर
हुए न ज़ब्ह न फ़ितराक तक ये जा पहुँचे
इधर उधर हैं तड़पते ये नीम-जाँ नख़चीर
है 'अज़फ़री' वो सियह-बख़्त साँप काटा भी
पड़ी है ज़ुल्फ़ की आ जिस के पाँव में ज़ंजीर
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