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जबकि ग़ुस्से के बीच आते हो - मिर्ज़ा अज़फ़री कविता - Darsaal

जबकि ग़ुस्से के बीच आते हो

जबकि ग़ुस्से के बीच आते हो

लाख लाख एक की सुनाते हो

कैसे हर खाए से बने पियारे

बात करते ही काट खाते हो

उड़ती चिड़िया को हम परखते हैं

कसे बातों में तुम उड़ाते हो

कहो मुझ से भी चल सकोगे क्या

बैठो जी बातें क्या बनाते हो

जस न तिस पर न देख दह पड़ना

भले मतवाले मध के माते हो

जब मैं देखूँ हूँ आँख भर के तुम्हें

बदल आँखें मुझे धिराते हो

क्या तुम्हारी गधी चुराई मैं

गालियाँ दे जो मुँह चुराते हो

जब न तब उठ के 'अज़फ़री' का गला

दाब धमकाते और डराते हो

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