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गिरह जो काम में डाले है पंजा-ए-तक़दीर - मिर्ज़ा अज़फ़री कविता - Darsaal

गिरह जो काम में डाले है पंजा-ए-तक़दीर

गिरह जो काम में डाले है पंजा-ए-तक़दीर

मजाल क्या कि खुले वो ब-नाख़ुन-ए-तदबीर

दिला तड़फ के तू निकला पड़े है सीने से

ये घर उजाड़ न ऐ घर बसे पकड़ टुक धीर

शब-ए-फ़िराक़ में जानाँ की मैं रहा जीता

कि सख़्त-जान है मुझ को हिजाब दामन-गीर

लब उस के देखो तो है ज़ुल्म-ओ-ख़ूँ ख़ुरी की दलील

सियह मिसी पे नहीं सुर्ख़ पान की तहरीर

ये फेंक तीर-ए-निगह जी से मार डालें हैं

बताओ कर सके बे-जाँ सितम की क्या तक़रीर

टुक आँख उठा के जो देखा नज़र से दे पटका

न थी ये 'अज़फ़री' इतनी गुनाह की ताज़ीर

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