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ग़ैरों के साथ गाते जाते हो - मिर्ज़ा अज़फ़री कविता - Darsaal

ग़ैरों के साथ गाते जाते हो

ग़ैरों के साथ गाते जाते हो

चुटकियों में हमें उड़ाते हो

कौन उस्ताद मिल गया कामिल

किस से ज़रबें ये सीख आते हो

नक़्श किस का उपर उठा मुँह पर

अब तो नक़्शा नया बिठाते हो

कभू सो रहते हो दुपट्टा तान

कभी इक तान मार जाते हो

कभू करते हो झाँझ आ हम से

कभी झाँझ और दफ़ बजाते हो

कभू लड़ने का तार है और गाह

तार तम्बूर पर चढ़ाते हो

ताली दय थपड़ी मार और लड़-भिड़

थाप मुर्दंग पर लगाते हो

होती है जब कहें से दूत-दपक

क्यूँ हमें आ के खड़खड़ाते हो

वादा टलता है जब तू राह में देख

बुत्ती दे मुझ को गिड़गिड़ाते हो

'अज़फ़री' दोस्त को रुला पियारे

दुश्मनों के तईं हँसाते हो

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