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बारकल्लाह मैं तिरे हुस्न की क्या बात कहूँ - मिर्ज़ा अज़फ़री कविता - Darsaal

बारकल्लाह मैं तिरे हुस्न की क्या बात कहूँ

बारकल्लाह मैं तिरे हुस्न की क्या बात कहूँ

सज कहूँ धज कहूँ छब तख़्ती कहूँ गात कहूँ

रुख़ ओ ज़ुल्फ़ उस के शब-ए-तार में देखे बाहम

हूँ अचंभे में इसे दिन कहूँ या रात कहूँ

की क़यामत तिरे क़ामत ने तो गुलशन ऊपर

पंखुड़ी एक तरफ़ फूल कहूँ पात कहूँ

ताक़-ए-अबरू के नज़ारे के थे ख़्वाहाँ सो मिला

और क्या हाजत अब ऐ क़िबला-ए-हाजात कहूँ

देखने को अभी दिल तड़पा कि तुम आ पहुँचे

कशिश-ए-दिल कि तुम्हारी ये करामात कहूँ

ऐन हिज्राँ में बहार-ए-गुल-ओ-बाराँ आई

गिर्या आशिक़ का कहूँ या उसे बरसात कहूँ

'अज़फ़री' ने हैं तिरे इश्क़ में झेले प्यारे

क्या क्या आफ़ात बलिय्यात कि सदमात कहूँ

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