तेरी दहलीज़ पे इक़रार की उम्मीद लिए
फिर खड़े हैं तिरे इंकार के मारे हुए लोग
Mohsin Naqvi
Rahat Indori
Wasi Shah
Habib Jalib
Javed Akhtar
Faiz Ahmad Faiz
Gulzar
Parveen Shakir
Jaun Eliya
Mir Taqi Mir
Allama Iqbal
Ahmad Faraz
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(939) Peoples Rate This
एक दरिया को दिखाई थी कभी प्यास अपनी
ये कैसी आग मुझ में जल रही है
हरीम-ए-दिल में ठहर या सरा-ए-जान में रुक
ख़ुद अपने क़त्ल का इल्ज़ाम ढो रहा हूँ अभी
तू ने ऐ वक़्त पलट कर भी कभी देखा है
मैं ही आईना-ए-दुनिया में चला आया हूँ
जश्न होता है वहाँ रात ढले
मुझ में थोड़ी सी जगह भी नहीं नफ़रत के लिए
तमाम शहर में बिखरा पड़ा है मेरा वजूद
न इंतिज़ार करो कल का आज दर्ज करो
क्या पता जाने कहाँ आग लगी