मैं ही आईना-ए-दुनिया में चला आया हूँ
या चली आई है दुनिया मिरे आईने में
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तू ने ऐ वक़्त पलट कर भी कभी देखा है
क्या पता जाने कहाँ आग लगी
मेरी आँखों से भी इक बार निकल
ये कैसी आग मुझ में जल रही है
मैं ने कैसे कैसे मोती ढूँडे हैं
हरीम-ए-दिल में ठहर या सरा-ए-जान में रुक
तेरी दहलीज़ पे इक़रार की उम्मीद लिए
ख़ुद अपने क़त्ल का इल्ज़ाम ढो रहा हूँ अभी
मैं अधूरा सा हूँ उस के अंदर
देखते रहते हैं ख़ुद अपना तमाशा दिन रात
जश्न होता है वहाँ रात ढले