क्या पता जाने कहाँ आग लगी
हर तरफ़ सिर्फ़ धुआँ है मुझ में
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न इंतिज़ार करो कल का आज दर्ज करो
मुझ में थोड़ी सी जगह भी नहीं नफ़रत के लिए
मैं ही आईना-ए-दुनिया में चला आया हूँ
जश्न होता है वहाँ रात ढले
ख़ुद अपने क़त्ल का इल्ज़ाम ढो रहा हूँ अभी
तेरी दहलीज़ पे इक़रार की उम्मीद लिए
देखते रहते हैं ख़ुद अपना तमाशा दिन रात
तू ने ऐ वक़्त पलट कर भी कभी देखा है
मैं अधूरा सा हूँ उस के अंदर
मेरी आँखों से भी इक बार निकल
एक दरिया को दिखाई थी कभी प्यास अपनी