ख़ुद अपने क़त्ल का इल्ज़ाम ढो रहा हूँ अभी
मैं अपनी लाश पे सर रख के रो रहा हूँ अभी
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मैं अधूरा सा हूँ उस के अंदर
न इंतिज़ार करो कल का आज दर्ज करो
हरीम-ए-दिल में ठहर या सरा-ए-जान में रुक
एक दरिया को दिखाई थी कभी प्यास अपनी
तू ने ऐ वक़्त पलट कर भी कभी देखा है
देखते रहते हैं ख़ुद अपना तमाशा दिन रात
मैं ने कैसे कैसे मोती ढूँडे हैं
मुझ में थोड़ी सी जगह भी नहीं नफ़रत के लिए
तमाम शहर में बिखरा पड़ा है मेरा वजूद
मेरी आँखों से भी इक बार निकल
ये कैसी आग मुझ में जल रही है