देखते रहते हैं ख़ुद अपना तमाशा दिन रात
हम हैं ख़ुद अपने ही किरदार के मारे हुए लोग
Faiz Ahmad Faiz
Allama Iqbal
Mir Taqi Mir
Rahat Indori
Wasi Shah
Anwar Masood
Parveen Shakir
Habib Jalib
Gulzar
Ahmad Faraz
Mohsin Naqvi
Jaun Eliya
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(986) Peoples Rate This
मैं ने कैसे कैसे मोती ढूँडे हैं
एक दरिया को दिखाई थी कभी प्यास अपनी
क्या पता जाने कहाँ आग लगी
हरीम-ए-दिल में ठहर या सरा-ए-जान में रुक
जश्न होता है वहाँ रात ढले
तमाम शहर में बिखरा पड़ा है मेरा वजूद
ये कैसी आग मुझ में जल रही है
तेरी दहलीज़ पे इक़रार की उम्मीद लिए
मैं अधूरा सा हूँ उस के अंदर
मेरी आँखों से भी इक बार निकल
न इंतिज़ार करो कल का आज दर्ज करो
ख़ुद अपने क़त्ल का इल्ज़ाम ढो रहा हूँ अभी