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ये कैसी आग मुझ में जल रही है - मिर्ज़ा अतहर ज़िया कविता - Darsaal

ये कैसी आग मुझ में जल रही है

ये कैसी आग मुझ में जल रही है

ये कैसी बर्फ़ मुझ में गल रही है

कोई तस्बीह मुझ में पढ़ रहा है

कोई क़िंदील मुझ में जल रही है

मुसाफ़िर जा चुका लम्बे सफ़र पर

अभी तक धूप आँखें मल रही है

सभी बाहोँ को फैलाए खड़े हैं

क़यामत है कि हर-पल टल रही है

इज़ाफ़ी हो चुका है मत्न सारा

कहानी हाशिए से चल रही है

मुझे सब दफ़्न कर के जा चुके हैं

मगर ये साँस अब तक चल रही है

बहुत रोएगी ये लड़की किसी दिन

जो मेरे साथ हंस कर चल रही है

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