मैं ने कैसे कैसे मोती ढूँडे हैं
मैं अधूरा सा हूँ उस के अंदर
हरीम-ए-दिल में ठहर या सरा-ए-जान में रुक
क्या पता जाने कहाँ आग लगी
ये कैसी आग मुझ में जल रही है
मेरी आँखों से भी इक बार निकल
न इंतिज़ार करो कल का आज दर्ज करो
देखते रहते हैं ख़ुद अपना तमाशा दिन रात
मैं ही आईना-ए-दुनिया में चला आया हूँ
तमाम शहर में बिखरा पड़ा है मेरा वजूद
तू ने ऐ वक़्त पलट कर भी कभी देखा है
तेरी दहलीज़ पे इक़रार की उम्मीद लिए