मुझ में थोड़ी सी जगह भी नहीं नफ़रत के लिए
मैं अधूरा सा हूँ उस के अंदर
हरीम-ए-दिल में ठहर या सरा-ए-जान में रुक
मैं ने कैसे कैसे मोती ढूँडे हैं
देखते रहते हैं ख़ुद अपना तमाशा दिन रात
एक दरिया को दिखाई थी कभी प्यास अपनी
ये कैसी आग मुझ में जल रही है
मेरी आँखों से भी इक बार निकल
जश्न होता है वहाँ रात ढले
तेरी दहलीज़ पे इक़रार की उम्मीद लिए
क्या पता जाने कहाँ आग लगी
ख़ुद अपने क़त्ल का इल्ज़ाम ढो रहा हूँ अभी