ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की
फिर भी करते हैं 'मीर'-साहिब इश्क़
हर-चंद गदा हूँ मैं तिरे इश्क़ में लेकिन
न जानूँ 'मीर' क्यूँ ऐसा है चिपका
न समझा गया अब्र क्या देख कर
बुत-ख़ाने से दिल अपने उठाए न गए
'मीर' को ज़ोफ़ में मैं देख कहा कुछ कहिए
तड़प है क़ैस के दिल में तह-ए-ज़मीं इस से
कोह-ओ-सहरा भी कर न जाए बाश
दुनिया से दर-गुज़र कि गुज़रगह अजब है ये
मय-कशी सुब्ह-ओ-शाम करता हूँ
बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला