यही दर्द-ए-जुदाई है जो इस शब
तो आता है जिगर मिज़्गान-ए-तर तक
दिखाई देंगे हम मय्यत के रंगों
अगर रह जाएँगे जीते सहर तक
Wasi Shah
Habib Jalib
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Gulzar
Rahat Indori
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Mir Taqi Mir
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मय-कशी सुब्ह-ओ-शाम करता हूँ
न जानूँ 'मीर' क्यूँ ऐसा है चिपका
इतने भी हम ख़राब न होते रहते
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी
दुनिया से दर-गुज़र कि गुज़रगह अजब है ये
'मीर' को ज़ोफ़ में मैं देख कहा कुछ कहिए
हाल-ए-बद में मिरे ब-तंग आ कर
तुम तो ऐ मेहरबान अनूठे निकले
तड़प है क़ैस के दिल में तह-ए-ज़मीं इस से
ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की
मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उन लबों के
बुत-ख़ाने से दिल अपने उठाए न गए