फूलों की सेज पर से जो बे-दिमाग़ उठ्ठे
मसनद पे नाज़ की जो तेवरी चढ़ा के बैठे
क्या ग़म उसे ज़मीं पर बेबर्ग-ओ-साज़ कोई
ख़ार-ओ-ख़सक ही क्यूँ न बरसों बिछा के बैठे
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ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की
मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उन लबों के
सुना है चाह का दावा तुम्हारा
तड़प है क़ैस के दिल में तह-ए-ज़मीं इस से
इतने भी हम ख़राब न होते रहते
वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
मय-कशी सुब्ह-ओ-शाम करता हूँ
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
बुत-ख़ाने से दिल अपने उठाए न गए
दिल टुक उधर न आया ईधर से कुछ न पाया
फिर भी करते हैं 'मीर'-साहिब इश्क़
न जानूँ 'मीर' क्यूँ ऐसा है चिपका