फूलों की सेज पर से जो बे-दिमाग़ उठ्ठे
मसनद पे नाज़ की जो तेवरी चढ़ा के बैठे
क्या ग़म उसे ज़मीं पर बेबर्ग-ओ-साज़ कोई
ख़ार-ओ-ख़सक ही क्यूँ न बरसों बिछा के बैठे
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ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की
दुनिया से दर-गुज़र कि गुज़रगह अजब है ये
तुम तो ऐ मेहरबान अनूठे निकले
तड़प है क़ैस के दिल में तह-ए-ज़मीं इस से
हो आशिक़ों में उस के तो आओ 'मीर'-साहिब
मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उन लबों के
कोह-ओ-सहरा भी कर न जाए बाश
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी
तस्कीन-ए-दिल के वास्ते हर कम-बग़ल के पास
ताब-ओ-ताक़त को तो रुख़्सत हुए मुद्दत गुज़री
बुत-ख़ाने से दिल अपने उठाए न गए