न समझा गया अब्र क्या देख कर
हुआ था मिरी चश्म-ए-तर की तरफ़
टपकता है पलकों से ख़ूँ मुत्तसिल
नहीं देखते हम जिगर की तरफ़
Mir Taqi Mir
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'मीर' को ज़ोफ़ में मैं देख कहा कुछ कहिए
हुआ है अहल-ए-मसाजिद पे काम अज़-बस तंग
बुत-ख़ाने से दिल अपने उठाए न गए
तुम तो ऐ मेहरबान अनूठे निकले
मय-कशी सुब्ह-ओ-शाम करता हूँ
ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की
हर-चंद गदा हूँ मैं तिरे इश्क़ में लेकिन
तड़प है क़ैस के दिल में तह-ए-ज़मीं इस से
सुना है चाह का दावा तुम्हारा
इतने भी हम ख़राब न होते रहते
हो आशिक़ों में उस के तो आओ 'मीर'-साहिब