'मीर' को ज़ोफ़ में मैं देख कहा कुछ कहिए
है तुझे कोई घड़ी क़ुव्वत-ए-गुफ़्तार हनूज़
अभी इक दम में ज़बाँ चलने से रह जाती है
दर्द-ए-दिल क्यूँ नहीं करता है तू इज़हार हनूज़
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न जानूँ 'मीर' क्यूँ ऐसा है चिपका
मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उन लबों के
वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
दुनिया से दर-गुज़र कि गुज़रगह अजब है ये
फूलों की सेज पर से जो बे-दिमाग़ उठ्ठे
तस्कीन-ए-दिल के वास्ते हर कम-बग़ल के पास
दिल टुक उधर न आया ईधर से कुछ न पाया
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी
यही दर्द-ए-जुदाई है जो इस शब
हो आशिक़ों में उस के तो आओ 'मीर'-साहिब
हर-चंद गदा हूँ मैं तिरे इश्क़ में लेकिन
ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की