हो आशिक़ों में उस के तो आओ 'मीर'-साहिब
गर्दन को अपनी मू से बारीक-तर करो तुम
क्या लुत्फ़ है वगर्ना जिस दम वो तेग़ खींचे
सीना सिपर करें हम क़त-ए-नज़र करो तुम
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दुनिया से दर-गुज़र कि गुज़रगह अजब है ये
फूलों की सेज पर से जो बे-दिमाग़ उठ्ठे
दिल टुक उधर न आया ईधर से कुछ न पाया
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
इतने भी हम ख़राब न होते रहते
कोह-ओ-सहरा भी कर न जाए बाश
हर-चंद गदा हूँ मैं तिरे इश्क़ में लेकिन
ताब-ओ-ताक़त को तो रुख़्सत हुए मुद्दत गुज़री
तड़प है क़ैस के दिल में तह-ए-ज़मीं इस से
यही दर्द-ए-जुदाई है जो इस शब