गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
मजनूँ का गाहे क़िस्सा बैठा कहा करे है
एक आफ़त-ए-ज़माँ है ये 'मीर' इश्क़-पेशा
पर्दे में सारे मतलब अपने अदा करे है
Parveen Shakir
Wasi Shah
Mir Taqi Mir
Anwar Masood
Faiz Ahmad Faiz
Jaun Eliya
Rahat Indori
Gulzar
Ahmad Faraz
Allama Iqbal
Mohsin Naqvi
Habib Jalib
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(2129) Peoples Rate This
हाल-ए-बद में मिरे ब-तंग आ कर
बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला
हर-चंद गदा हूँ मैं तिरे इश्क़ में लेकिन
वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
यही दर्द-ए-जुदाई है जो इस शब
मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उन लबों के
न जानूँ 'मीर' क्यूँ ऐसा है चिपका
मय-कशी सुब्ह-ओ-शाम करता हूँ
फिर भी करते हैं 'मीर'-साहिब इश्क़
तुम तो ऐ मेहरबान अनूठे निकले
तड़प है क़ैस के दिल में तह-ए-ज़मीं इस से