दिल टिक उधर न आया ईधर से कुछ न पाया
कहने को तर्क ले कर इक स्वाँग याँ बनाया
दरयोज़ा करते गुज़री गलियों में उम्र अपनी
दरवेश कब हुए हम तकिया कहाँ बनाया
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तुम तो ऐ मेहरबान अनूठे निकले
फूलों की सेज पर से जो बे-दिमाग़ उठ्ठे
मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उन लबों के
ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की
हाल-ए-बद में मिरे ब-तंग आ कर
दिल टुक उधर न आया ईधर से कुछ न पाया
बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला
न समझा गया अब्र क्या देख कर
तस्कीन-ए-दिल के वास्ते हर कम-बग़ल के पास
हो आशिक़ों में उस के तो आओ 'मीर'-साहिब
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी
कोह-ओ-सहरा भी कर न जाए बाश