बुत-ख़ाने से दिल अपने उठाए न गए
काबे की तरफ़ मिज़ाज लाए न गए
तौर-ए-मस्जिद को बरहमन क्या जाने
याँ मुद्दत-ए-उम्र में हम आए न गए
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हुआ है अहल-ए-मसाजिद पे काम अज़-बस तंग
सुना है चाह का दावा तुम्हारा
ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी
न जानूँ 'मीर' क्यूँ ऐसा है चिपका
फूलों की सेज पर से जो बे-दिमाग़ उठ्ठे
हाल-ए-बद में मिरे ब-तंग आ कर
तस्कीन-ए-दिल के वास्ते हर कम-बग़ल के पास
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला
वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में