बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला
दुनिया से दर-गुज़र कि गुज़रगह अजब है ये
यही दर्द-ए-जुदाई है जो इस शब
ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की
कोह-ओ-सहरा भी कर न जाए बाश
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी
मय-कशी सुब्ह-ओ-शाम करता हूँ
न समझा गया अब्र क्या देख कर
इतने भी हम ख़राब न होते रहते
तस्कीन-ए-दिल के वास्ते हर कम-बग़ल के पास
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
फूलों की सेज पर से जो बे-दिमाग़ उठ्ठे