सुना है चाह का दावा तुम्हारा
मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उन लबों के
यही दर्द-ए-जुदाई है जो इस शब
हर-चंद गदा हूँ मैं तिरे इश्क़ में लेकिन
बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला
फूलों की सेज पर से जो बे-दिमाग़ उठ्ठे
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
कोह-ओ-सहरा भी कर न जाए बाश
तस्कीन-ए-दिल के वास्ते हर कम-बग़ल के पास
ताब-ओ-ताक़त को तो रुख़्सत हुए मुद्दत गुज़री
इतने भी हम ख़राब न होते रहते
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी