फिर भी करते हैं 'मीर'-साहिब इश्क़
वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
न जानूँ 'मीर' क्यूँ ऐसा है चिपका
तस्कीन-ए-दिल के वास्ते हर कम-बग़ल के पास
हाल-ए-बद में मिरे ब-तंग आ कर
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी
दुनिया से दर-गुज़र कि गुज़रगह अजब है ये
बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला
हर-चंद गदा हूँ मैं तिरे इश्क़ में लेकिन
तड़प है क़ैस के दिल में तह-ए-ज़मीं इस से
ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की
कोह-ओ-सहरा भी कर न जाए बाश