न समझा गया अब्र क्या देख कर
तस्कीन-ए-दिल के वास्ते हर कम-बग़ल के पास
फिर भी करते हैं 'मीर'-साहिब इश्क़
ताब-ओ-ताक़त को तो रुख़्सत हुए मुद्दत गुज़री
हर-चंद गदा हूँ मैं तिरे इश्क़ में लेकिन
मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उन लबों के
हुआ है अहल-ए-मसाजिद पे काम अज़-बस तंग
सुना है चाह का दावा तुम्हारा
तुम तो ऐ मेहरबान अनूठे निकले
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
कोह-ओ-सहरा भी कर न जाए बाश
यही दर्द-ए-जुदाई है जो इस शब