न जानूँ 'मीर' क्यूँ ऐसा है चिपका
तड़प है क़ैस के दिल में तह-ए-ज़मीं इस से
सुना है चाह का दावा तुम्हारा
फूलों की सेज पर से जो बे-दिमाग़ उठ्ठे
तस्कीन-ए-दिल के वास्ते हर कम-बग़ल के पास
दिल टुक उधर न आया ईधर से कुछ न पाया
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
हाल-ए-बद में मिरे ब-तंग आ कर
मय-कशी सुब्ह-ओ-शाम करता हूँ
हुआ है अहल-ए-मसाजिद पे काम अज़-बस तंग
ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की