दुनिया से दर-गुज़र कि गुज़रगह अजब है ये
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उन लबों के
दिल टुक उधर न आया ईधर से कुछ न पाया
हाल-ए-बद में मिरे ब-तंग आ कर
तुम तो ऐ मेहरबान अनूठे निकले
वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
कोह-ओ-सहरा भी कर न जाए बाश
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी
यही दर्द-ए-जुदाई है जो इस शब
हर-चंद गदा हूँ मैं तिरे इश्क़ में लेकिन
तस्कीन-ए-दिल के वास्ते हर कम-बग़ल के पास