हाल-ए-बद में मिरे ब-तंग आ कर
फूलों की सेज पर से जो बे-दिमाग़ उठ्ठे
यही दर्द-ए-जुदाई है जो इस शब
कोह-ओ-सहरा भी कर न जाए बाश
वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
हर-चंद गदा हूँ मैं तिरे इश्क़ में लेकिन
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
हुआ है अहल-ए-मसाजिद पे काम अज़-बस तंग
बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला
ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की
न समझा गया अब्र क्या देख कर
सुना है चाह का दावा तुम्हारा