तड़प है क़ैस के दिल में तह-ए-ज़मीं इस से
मय-कशी सुब्ह-ओ-शाम करता हूँ
कोह-ओ-सहरा भी कर न जाए बाश
सुना है चाह का दावा तुम्हारा
दिल टुक उधर न आया ईधर से कुछ न पाया
ताब-ओ-ताक़त को तो रुख़्सत हुए मुद्दत गुज़री
न समझा गया अब्र क्या देख कर
मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उन लबों के
ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की
दुनिया से दर-गुज़र कि गुज़रगह अजब है ये
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
तुम तो ऐ मेहरबान अनूठे निकले