'मीर' को ज़ोफ़ में मैं देख कहा कुछ कहिए
न समझा गया अब्र क्या देख कर
यही दर्द-ए-जुदाई है जो इस शब
मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उन लबों के
दुनिया से दर-गुज़र कि गुज़रगह अजब है ये
ताब-ओ-ताक़त को तो रुख़्सत हुए मुद्दत गुज़री
वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
तड़प है क़ैस के दिल में तह-ए-ज़मीं इस से
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
न जानूँ 'मीर' क्यूँ ऐसा है चिपका
ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की
तस्कीन-ए-दिल के वास्ते हर कम-बग़ल के पास