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गर इसी तरह सज बनाइएगा - मीर मोहम्मदी बेदार कविता - Darsaal

गर इसी तरह सज बनाइएगा

गर इसी तरह सज बनाइएगा

महशर आबाद कर दिखाइएगा

उम्र वादों ही में गँवाइएगा

आईएगा भी या न आईएगा

मेहरबाँ क़दर जानिए मेरी

मुझ सा मुख़्लिस कहीं न पाइएगा

यही क़ामत है गर यही रफ़्तार

हश्र बरपा ही कर दिखाइएगा

यही रोना अगर है ऐ अँखियों

ख़ाना-ए-मरर्दुमाँ डुबाइएगा

माह-रूयाँ कहाँ तलक हम को

आतिश-ए-हिज्र में जलाइएगा

ज़ब्त-ए-गिर्या न होवेगा जूँ शम्अ

सोज़-ए-दिल गर तुम्हें सुनाइएगा

हुस्न जाता है ख़त की आमद है

हाँ हमें क्यूँ न अब मनाइएगा

मुग़्तनिम जानो हम से मुख़्लिस को

ढूँडिएगा तो फिर न पाइएगा

ये न होगा कि याँ से उठ जावें

ऐसी सौ बातें गर सुनाइएगा

एक दो क्या हज़ार से भी हम

नहीं डरते अगर बुलाइएगा

आज जो हो सो हो यही है अज़्म

तुम को हर तरह ले के जाइएगा

जिस ने 'बेदार' दिल लिया मेरा

एक दिन तुझ को भी दिखाइएगा

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