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गर एक रात गुज़र याँ वो रश्क-ए-माह करे - मीर मोहम्मदी बेदार कविता - Darsaal

गर एक रात गुज़र याँ वो रश्क-ए-माह करे

गर एक रात गुज़र याँ वो रश्क-ए-माह करे

अजब नहीं कि गदा पर करम जो शाह करे

दिखावे आइना किस मुँह से उस को मुँह अपना

कि आफ़्ताब को जूँ शम-ए-सुब्ह-गाह करे

मुक़ाबिल आते ही यूँ खींच ले है दिल वो शोख़

कि जैसे काह-रुबा जज़्ब बर्ग काह करे

हवास-ओ-होश को छोड़ आप दिल गया उस पास

जब अहल-ए-फ़ौज ही मिल जाएँ क्या सिपाह करे

सितम-शिआर वफ़ा-दुश्मन आश्ना-बेज़ार

कहो तो ऐसे से क्यूँकर कोई निबाह करे

कई तड़पते हैं आशिक़ कई सिसकते हैं

इस आरज़ू में कि वो संग-दिल निगाह करे

मोहब्बत ऐसे की 'बेदार' सख़्त मुश्किल है

जो अपनी जान से गुज़रे वो उस की चाह करे

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