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गर बड़े मर्द हो तो ग़ैर को याँ जा दीजे - मीर मोहम्मदी बेदार कविता - Darsaal

गर बड़े मर्द हो तो ग़ैर को याँ जा दीजे

गर बड़े मर्द हो तो ग़ैर को याँ जा दीजे

उस को कह देखिए कुछ या मुझे उठवा दीजे

कौन ऐसा है जो छेड़े है तुम्हें राह के बीच

मैं समझ लूँगा टुक उस को मुझे बतला दीजे

दिल ओ जान ओ ख़िरद ओ दीं पहले ही दिन दे बैठे

आज हैराँ हूँ कि आता है उसे क्या दीजे

क्या हुआ हाल भला देख तो मुझ बे-दिल का

न कभी दिलबरी कीजे न दिलासा दीजे

दावा-ए-रुस्तमी करते तो हैं पर इक दम में

छीन लूँ तेग़-ओ-सिपर उन की जो फ़रमा दीजे

गुम हुआ है अभी याँ गौहर-ए-दिल ऐ ख़ूबाँ

हाथ लग जावे तुम्हारे तो मुझे पा दीजे

बेवफ़ा दुश्मन-ए-मेहर आफ़त-ए-जाँ संगीं-दिल

हैफ़ 'बेदार' कि ऐसे को दिल अपना दीजे

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