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जवाँ होता बुढ़ापा - ममता तिवारी कविता - Darsaal

जवाँ होता बुढ़ापा

मैं उम्र की गिनती तो उल्टी नहीं कर सकता

पर मैं बदलना चाहता हूँ

तुम्हारी पारंपरिक सोच

ताकि ख़ुद को महसूस कर सकूँ

जवाँ और हौसला-मंद

नक़ली दाँत लगा कर टूटे सपने नहीं देखूँगा

उन्हीं हालात में ख़्वाबों की नई नीव रखूँगा

बालों को रंगने की बजाए नए इन्द्र-धनुष रचूँगी

चश्मे के बढ़ते नंबरों को भूल और नए अक्स तलाशूँगा

क़दम लड़खड़ाने के पहले ही

अपनी लाठी को मज़बूत करूँगा

शोर पर ध्यान देने की जगह

जो भी जीवन-भर न सुन पाया वो गीत सुनूँगा

मेरी झुकी कमर पर तरस खाए कोई

उस से पहले किसी दोस्त का हाथ थाम लूँगा

मेरे बुढ़ापे पर तरस मत खाओ जवानों

मैं इस उम्र में भी तुम सा नौजवाँ लगूँगा

हाँ मैं वो दिया का का नाटक दोहराऊँगा

जो पहले कभी खेला गया था

गर इस उमंगों ने साथ दिया तो बुढ़ापे में जवानी का

एक नया इतिहास रचूँगा

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