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रिसता दर्द - ममता तिवारी कविता - Darsaal

रिसता दर्द

एक तरफ़ बरसों पुराना ख़ून का क़र्ज़ है

वहीं दूसरी और एक मज़लूम औरत

का रस्ता दर्द है

वो औरत

मेरी माँ हो सकती है या पड़ोसन

या कोई दूर वतन की अजनबी

पर ख़ून के रिश्ते से बड़ा

ये दर्द है मेरे लिए

क्यूँ कि

हर पल कुछ रिसता है उस रिश्ते के लिए

सारी ज़िंदगी कारपेट बनी रही ये औरत

आज भी ज़िमादारियोंं के बोझ से

ज़ियादा कुछ नहीं तुम्हारे लिए

पर भूल रहे हो तुम भी

इसी कारपेट पर धर दिए जाओगे

किसी दिन उपेछित पोटली की तरह

तब के लिए रिसता रहेगा ये दर्द

(1990) Peoples Rate This

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