गरेबाँ-चाक महफ़िल से निकल जाऊँ तो क्या होगा
तिरी आँखों से आँसू बन के ढल जाऊँ तो क्या होगा
जुनूँ की लग़्ज़िशें ख़ुद पर्दा-दार-ए-राज़-ए-उल्फ़त हैं
जो कहते हो सँभल जाओ सँभल जाऊँ तो क्या होगा
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उसी अदा से उसी बाँकपन के साथ आओ
ये रक़्स रक़्स-ए-शरर ही सही मगर ऐ दोस्त
अभी न रात के गेसू खुले न दिल महका
तू ने किस दिल को दुखाया है तुझे क्या मालूम