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राहत-ए-नज़र भी है वो अज़ाब-ए-जाँ भी है - महमूद शाम कविता - Darsaal

राहत-ए-नज़र भी है वो अज़ाब-ए-जाँ भी है

राहत-ए-नज़र भी है वो अज़ाब-ए-जाँ भी है

उस से रब्त-ए-लज़्ज़त भी और इम्तिहाँ भी है

फ़ासले मिटे भी हैं और कुछ बढ़े भी हैं

ये सफ़र ज़रूरी है और राएगाँ भी है

उम्र-भर की उलझन दे एक पल का नज़्ज़ारा

तेरा ग़म हक़ीक़त भी और बे-निशाँ भी है

तेरी मीठी बातों में झील झील आँखों में

आग भी सुलगती है दर्द से अमाँ भी है

तय करें तो हम कैसे फ़ासले दिल-ओ-जाँ के

एक ये अना का पुल अपने दरमियाँ भी है

लाख मैं तुझे भूलूँ लाख तू मुझे भूले

एक रिश्ता-ए-बेनाम अपने दरमियाँ भी है

इश्क़-ए-दिल में तुग़्यानी बर्फ़ बर्फ़ होंटों पर

सर-फिरी भी है चाहत और बे-ज़बाँ भी है

तेरी ज़िंदगी सरगर्म मेरी ज़िंदगी उलझन

रक़्स में भी है ख़्वाहिश और सरगिराँ भी है

'शाम' जाने क्यूँ हम ने सी लिया है होंटों को

वर्ना अपने हाथों में वक़्त की इनाँ भी है

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